Sunday 13 September 2020

Story Of Slave time


 First Story Written by me on the basis of Papa Memory


 


आम आदमी से जुड़ी मेरी कहानी जो उसके जीवन का पता लगा सकती है। यह बहुत समय पहले की बात है जब मैं भारत में 8-9 साल का था और अंग्रेजी शासक था। मेरे पिता (स्वर्गीय किशन शाह (मेरा दादा)) के पास एक भूरा घोड़ा था (जिसका नाम था राजा बाबू) जो बहुत मजबूत, अच्छी तरह से निर्मित और स्मार्ट लग रहा था, जिसकी पूंछ मिट्टी को छू रही थी, जिसका अर्थ है बहुत लंबी पूंछ और घोड़े की ऊंचाई लगभग 5 फीट से अधिक थी। उस समय में हमारे पास परिवहन का कोई बहुत बड़ा साधन नहीं था। मेरे पिता व्यवसायिक दौरे में अपने आज्ञाकारी पालतू घोड़े के साथ जाते थे।

 

लेकिन एक दिन एक दरोगा (अंग्रेजी पुलिसकर्मी) मेरे घर आया था और उसने मेरे पिता से पूछा कि आपका इस जगह बहुत अच्छा कारोबार है, इसलिए आपको हैवी लगान देना होगा। जैसे 50 पैकेट चावल एक बार में। लगभग जबरन उन्होंने आरोप लगाया और अपनी इच्छा के अनुसार लगान लिया।

 

इस बीच, अब्दुल्ला नाम के ग्राम प्रधान के दिमाग में कुछ और ही विचार था, इसलिए उन्होंने दरोगा को सुझाव दिया कि श्री शाह के पास उत्कृष्ट घोड़ा है, इसलिए आप अपने घोड़े के लिए अपना दृष्टिकोण क्यों नहीं रखते। इस बीच में दरोगा लालची हो गए और 15 दिनों के भीतर वह हमारे स्थान पर वापस आ गया और उसने मेरे पिता से कहा कि आप इस घोड़े को मेरे हवाले कर दें अन्यथा मैं आपसे अधिक लगान वसूल करूंगा और अब्दुल्ला प्रधान की मदद से एक मात्र राशि का भुगतान किया गया था और हमारी इच्छा के बिना मेरा घोड़ा ले लिया गया था। । इस के कारण हमने सारी आशा खो दी और यह सब दास की कहानी के बारे में था।

 

इसलिए मैं अपने पाठक से अपील करता हूं कि हमें अपने देश के लिए ईमानदार होना चाहिए और हमेशा देश के बारे में सोचना चाहिए।

बचपन में स्कूल की मज़ेदार कहानी

मेरे पिताजी की आवासीय विद्यालय में उनके द्वारा सुनाई सत्य घटनाओं पर मेरे द्वारा वर्णित विश्लेषण

मैं( मेरे बाबूजी) अपने स्कूल टाइम की बात बताने जा रहा हूँ । हमलोग करीब १०-१२ छात्र पंजवारा मिडिल स्कूल में पढ़ते थे। हमारे प्रधानाध्यापक श्री चक्रधर प्रसाद सिंह थे।  उनके समय में अनुशाषण और स्कूल प्रभंदन बहुत अच्छा था। एक मज़ाकिया दौर याद आ रहा है , उस समय हमलोग हॉस्टल में रहते थे।  हमारे रसोइये का नाम महादेव तिवारी(अनंत तिवारी के पिताजी ) था जो बैधनाथपुर ग्राम के थे।  हॉस्टल में सुबह शाम हमारे लिए महादेव जी बहुत तन्मयता से भोजन तैयार करते थे और हमसब एक साथ गुरु और शिष्य भोजन ग्रहण करते थे।  हमारे हेडमास्टर सर एक ही बार में परोसा गया भोजन खाकर उठ जाते थे परन्तु हमलोग अपने रुचि अनुसार परोशन लेते और जी भर कर भोजन करते थे।  भोजन करने वालों  में हमारे एक सर  जो हिंदी के शिक्षक (५वी और ६ठी कक्षा )  थे, उनका नाम चूमितलाल झा था। उनका एक पुत्र भी साथ में रहता और मेस में ही खाता था जिसका नाम लडडू था।  अन्य शिक्षक भी रहते थे। हमारे चपरासी का नाम चंडी मंडल उर्फ़ चिगड़ा था। 

श्री चक्रधर गुरु जी को कभी कभी हिस्टेरिया का भी दौरा पड़ता था , लेकिन वो बहुत ही संजमित रहते थे। 

उस समय हमारे मित्र मंडली में सीनियर छात्र जो (६-७) क्लास में थे उनका नाम मुबारक हुसैन ,श्याम सुन्दर शाह ,जगदीश रामदास ,सितावी गोप आदि थे , उस समय मैं (आमिर लाल शाह ) ५वीं क्लास में पढता था। भोजन के समय पंडित जी (चूमितलाल झा) अक्सर छात्रों की ओर देखकर अपने दोनों कलाई को कमर से ऊपर पेट के दोनों बगल में हथेली को खोलकर उँगलियों को फैलाकर यूँ इशारा करते थे की तुम लोग बहुत खाते हो।  ऐसी कलुषित भावना और इशारा को देखकर कुछ विद्यार्थी खाना जल्दी और आधे पेट खाकर ही उठ जाया करते थे।  इन सब कारनामो को हमारे रसोइये महादेव जी भी नोटिस करते थे लेकिन शिष्टाचारवश कुछ बोल नहीं पाते थे।  लेकिन जब ये सिलसिला लगातार जारी रहा तो एक दिन महादेव जी हमारे हेडमास्टर सर के पास जाकर कहने लगे कुछ टूटी फूटीहिंदी  में क्यूंकि अंगिका उनकी भाषा थी, बाबा जी अब नहीं रहेगी इस बात को सुनकर आश्चर्य से उन्होंने कहा की महादेव तुम ऐसा क्यों कह रहे हो फिर उन्होंने बहुत ही इनोसेंट पूर्वक ये वाक्या बयां किया की आप तो खाकर उठ जाते हैं लेकिन पंडी जी ३-३ बार परोशन लेकर खाती रहती है और  कहती रहती है , लड़कों को हाथ फैलाकर यु इशारा करती है की तुमलोग बहुत खाती है। इस बात पर प्रधानाध्यापक श्री चक्रधर महोदय बहुत नाराज़ हुए और पड़ी जी को अलग से ऑफिस में बुलाकर पूछा की आप भी वहीँ खाते है और मैं भी वहीँ खाता हूँ जो भोजन बच्चों के लिए बनता है और उनके ही कंट्रीब्यूशन से तैयार होता है , फिर आप ऐसा क्यों करते हैं ? इसके रिप्लाई में पंडी जी ने गलती मान कर कहा की आगे से ध्यान रखूंगा। फिर चक्रधर महोदय ने कहा की अगर आपकी इच्छा हो तो आपका और आपके लड़के का भोजन आपके आवास पर ही भेज दिया जाएगा अन्यथा आप हमारे साथ ही भोजन करेंगे।  इसपर पंडित जी अपने आवास पर ही भोजन पहुंचवाने की इच्छा ज़ाहिर किया।  तत्पश्चात भोजन उन्हें घर पर ही उपलब्ध कराया जाने लगा ,लेकिन अचानक १०-१२ दिन के बाद वो और उनका पुत्र मेस में पुनः आकर भोजन के लिए उपस्थित हुए।

उन्होंने कहा की मैं लड़कों के साथ ही भोजन करूंगा क्यूंकि मेरा भोजन जो मुझे मिल रहा है उससे पेट नहीं भर रहा है।  फिर उनकी पुराणी अश्लील हरकत कुछ दिनों के बाद पुनः शुरू हो गया ऐसा देखकर बाबा जी ( महादेव तिवारी) फिर से चक्रधर महोदय के पास जाकर कहने लगे बबा जी अब नहीं रहेगी क्यूंकि जो भोजन स्टूडेंट का है उसे पंडी जी और उनका पुत्र तृप्त होने तक खाते भी  हैं और अश्लील इशारा भी करते हैं।  उनके दो तीन बार दुहराने के बाद हेडमास्टर साहब ने कहा की सभी मास्टरों को बुलाओ। शक्तिनाथ झा , रामप्रसाद झा, इन्द्रलाल झा एवं रेहमान मौलवी इन सब शिक्षकों के आने के बाद शारी घटनाक्रम को बताया गया और फिर रसोइये महादेव तिवारी की की सच्चाई जानकर पंडी जी को मेस से खानपान की व्यवस्था से वंचित किया गया।  आज मैं उस दौर की इस घटना को इसलिए बताने के लिए मज़बूर हो गया क्यूंकि उस समय चूमितलाल  झा जैसे पंडित जी , जो जिसका नमक खाते थे उन्हीं का उपहास और आलोचना भी करते थे।  और जिनका अधिकार था उससे उन्हें वंचित करना उनका स्वाभाव था। उस समय ऐसे लोग १% ही थे बांकी सच्चाई थी लेकिन आज के दौर में ये संख्या उलटी हो गयी हैं और ज्यादातर लोग पंडी जी की तरह ही सबकी टांग खींच कर अपनी किस्मत चमकाने में लगे हुए हैं। अतः हमे अपने पुराने समय की बहुत याद आती हैं। 

धन्यवाद उन सभी का जिन्हे इस कहानी से कुछ शिक्षा मिलती हो। सप्रेम नमस्ते 

मंदिर के बगीचे की कहानी


मेरे पिताजी की सत्य तथ्यों पर आधारित उन्ही की ज़ुबानी में मेरे द्वारा लिखी हुई कहानी


मै (मेरे पिता श्री आमिर लाल शाह) हमेशा अपने परिवार , समाज  ,गांव  तथा सबसे ऊपर अपने आराध्य देव के बारे में सोचता रहता हूँ। इन सबके बीच कब ज़िन्दगी के इतने साल गुजर गए कुछ पता ही नहीं लगा और अब जब मै अपने भूत , भविष्य और वर्तमान का आकलन करता हूँ तो मुझे सब बैलेंस ही लगता है। ईमानदारी से मैंने सिर्फ इतना ही किया की  अपना तथा अपनों की परवाह किये बगैर हमेशा मै दूसरों के लिए जिया और इतना कम  भी नहीं, जी भर कर जिया।  संभवतः इस उड़ान में मैं अपने करीबी (जैसे अपनी पत्नी , बच्चों) की परवाह भी नहीं किया।  लेकिन उनकी किसी जिम्मेदारी से पीछे भी नहीं हटा। आज ज़िन्दगी के ७९वें वसंत गुज़र जाने के बाद सही गलत का आकलन हर कोई अपने स्वार्थ और फायदे के लिए करता है , जिससे मुझे सबसे अधिक नफरत होती है।  क्यूंकि मैंने इनसे ही तो दूरी बनाई थी और आज का सभ्य समाज इन्ही ढकोसले का अमली जामा पहन कर इज़्ज़तदार होने की तारीफ करता दिखाई पड़ रहा है। 

 एक छोटी सी वाक्या को आपके सामने रख रहा हूँ , संभवतः आपको इनसे कुछ empathy अवश्य होगी। 

मेरे ग्राम में एक बहुत ही पौराणिक , भव्य और स्वतः प्रगट हुए बाबा कष्टहार नाथ (भगवान भोले नाथ) का प्राचीन मंदिर है।  दूर -दूर से इस मंदिर में लोग अपनी पवित्र आस्था को लेकर दर्शन को आते हैं और बाबा किसी न किसी तरह से हर एक की at least एक इच्छा अवश्य पूर्ण करते हैं। 

इसी मंदिर के प्रांगण में एक शिवगंगा है , और भी कई मंदिर है जिनमे अन्य देवताओं का वास है।  उनमे से एक बजरंगबली का मंदिर है तथा एक माता काली  का भी हमारे प्रयासों से निर्मित भव्य काली स्थान  है। 

ये सारी बात मै आपको इसलिए  बता रहा हूँ क्यूंकि आगे जो कहानी है उसके लिए आपको इनसब बातों को  बताना जरूरी है। ये वाक्या आज से तकरीबन ३२-३५ साल पहले की है जब इसी मंदिर प्रागण में खाली पड़ी भूमि पर कुछ असामाजिक तत्त्व(सकील अहमद और उनके साथी ) अनधिकृत कब्ज़ा करना चाह रहे थे , बात कुछ ऐसी थी मैं (आमिर लाल साह) और मेरे भइया (अनूप लाल साह )  मिलकर उस खाली पड़ी जमीन पर आम का बगीचा लगाने का विचार किया जिससे सभी आगंतुकों का कुछ भला हो सके और मंदिर के  कोष में धन जमा हो सके , जनमानस को छाया मिल सके , इन सब लोक  कल्याण  भावना  के समावेशित होने पर मैंने अपने बड़े भैया के सामने यह प्रश्ताव लाया तो उन्होंने सहर्ष सहमति प्रदान की।  फिर हमने भागलपुर के सबौर कृषि विश्वविद्यालय से चुनिंदा आम के पौधों को मंगाया।  फिर वृक्षारोपण  का कार्य शुरू किया गया तो अचानक उन असामाजिक तत्वों के द्वारा व्यवधान उत्पन्न किया गया और उन्होंने ये प्रश्ताव रखा की ये तो खास (सरकारी ) जमीन है फिर इसमें कोई कार्य नहीं किया जा सकता है। उनलोगों के विरोध की वजह से हमारा काम खटाई में पड़ गया , उस समय मैं फुल्लीडुमर उच्च विद्यालय में कार्यरत था।  सप्ताहांत मैं कभी घर भी आ जाता था , मेरे घर पहुंचने के बाद भैया ने मुझे सारी बातों से अवगत कराया तथा उनके छोटी मानशिकता का भी जिक्र किया।  इन सब बातों से विचलित हुए बगैर मैंने विचार कर नकुल मंडल को साथ में लेकर गोड्डा ब्लॉक जाकर सर्किल अधिकारी से मुलाकात किया और फिर आवेदन भी दिया की मंदिर प्रागण में सरकारी जमीन भी मंदिर का ही है और इसमें लोक कल्याण कार्य करने में  किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए। अंचलाधिकारी के समर्थन प्राप्त होने के बाद मैं खुद इस कार्य में मौजूद रहा था विद्यालय से अवकाश लेकर संपन्न होने तक रहा।  वहीँ पासवान के घर के समीप मेरा निजी ईटा (२० हज़ार ) करीब था जिसे मैंने गैबियन (जालीदार दिवार पौधे के चारो ओर बनाया जाने वाली आकृति ) बनाने हेतु दान में दिया और बागीचे की नींव रक्खी।  एक बीजू आम का पेड़ सिलधर साह द्वारा भी दान किया गया था। 

८-१० वर्ष के पश्चात जब पहली बार आम का फल बागीचे में आया तो सर्वसम्मति से ये निर्णय लिया गया की , सभी आम परिपक़्व होने के बाद तोड़ कर बिपिन साह (जलधर साह के पुत्र ) एक मज़दूर को साथ लेकर ग्रामवासियों को प्रसाद स्वरुप घर -घर जाकर र ५ /आम के दर से बेचा जाय और इससे होने वाले आय से बगीचे और मंदिर की देखभाल किया जाय।  इस कार्य में मैं भी आगे बढ़कर २५ आम लिया और र १२५ की कीमत अदा किया जिससे हर गांव वाले भी अपना योगदान दें और भगवान के घर का फल भी ग्रहण कर सकें।  

आज ये बगीचा लहलहा रहा है और हर वर्ष इसमें आम का फल प्रचूर मात्रा में आता है जो मंदिर की देखभाल के लिए उपयोग किया जाता है। 

हमने तो सेवा भावना से इस कार्य को हर संभव तन से ,मन से ,धन से तथा बहुमूल्य समय देकर अंजाम तक पहुंचाया।  परन्तु आज की तिथि में इसके  लाभ और सदूपयोगिता को आधार भूत स्तर पर करने वालों की इच्छा शक्ति की कमी देखी जा रही है जिसकी वजह से  मंदिर की देखभाल का कार्य भी समुचित सुनिश्चित नहीं लगता है। 

आगे फिर उपस्थित रहूंगा अपनी सत्य घटनाओं को लेकर , आपका बहुत - बहुत धन्यवाद। अपना प्यार यु हीं बनाये रखिये।  शुक्रिया

Saturday 15 February 2020

हिंदू उत्तराधिकार

हिंदू उत्तराधिकार कानून

·       न्यूज़ पेपर नवभारत टाइम्स के मुताबिक आज यहाँ मैं आपके सभी सवालों का जवाब लेकर आया हूँ कि हिन्दू परिवार के संपत्ति में कैसे बंटवारा किया जाय और इसमें किसका कितना अधिकार है।  सुप्रीम कोर्ट कि ताज़ा फैसले में इस बात पर पूरजोर ध्यान दिया गया है कि आने वाले समय में कहीं कोई विवाद न हो तथा हर संतान को उसका अधिकार मिले।  आइये बताये गए पॉइंट पर गौर फरमाते हैं और विरासत में मिली संपत्ति के अधिकारों को खंगालते हैं , जो इस प्रकार है 



हाइलाइट्स

  • सुप्रीम कोर्ट ने पिता की पैतृक संपत्ति में बेटियों के हक पर बड़ा फैसला दिया
  • मंगलवार को तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि बेटियों को बेटों के बराबर अधिकार है
  • इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने बेटियों को 1956 से ही बेटियों को संपत्ति का अधिकार दे दिया
नई दिल्ली
सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने मंगलवार को पैतृक संपत्ति में बेटियों के हक पर बड़ा फैसला दिया। इसके साथ ही पीठ ने कहा कि यह लैंगिक समानता हासिल करने की दिशा में बड़ा कदम है। हालांकि, पीठ ने कहा कि इसमें देरी हो गई। इसने कहा, 'लैंगिक समानता का संवैधानिक लक्ष्य देर से ही सही, लेकिन पा लिया गया है और विभेदों को 2005 के संशोधन कानून की धारा 6 के जरिए खत्म कर दिया गया है। पारंपरिक शास्त्रीय हिंदू कानून बेटियों को हमवारिस होने से रोकता था जिसे संविधान की भावना के अनुरूप प्रावधानों में संशोधनों के जरिए खत्म कर दिया गया है।' आइए जानते हैं सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर 10 बड़े सवालों के जवाब...

1. सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पैतृक संपत्ति में बेटियों का बेटों के बराबर अधिकार होता है। उसने पैतृक संपत्ति पर बेटियों को अधिकार को जन्मजात बताया। मतलब, बेटी के जन्म लेते ही उसका अपने पिता की पैतृक संपत्ति पर अधिकार हो जाता है, ठीक वैसे जैसे एक पुत्र जन्म के साथ ही अपने पिता की पैतृक संपत्ति का दावेदार बन जाता है।

2. सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा क्यों कहा?
सुप्रीम कोर्ट के सामने यह सवाल उठा कि क्या हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून, 2005 के प्रावधानों को पिछली तारीख (बैक डेट) से प्रभावी माना जाएगा? इस सवाल पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हां, यह बैक डेट से ही लागू है। 121 पन्नों के अपने फैसले में तीन सदस्यीय पीठ के अध्यक्ष जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा, 'हिंदू उत्तराधिकार कानून, 1956 की संशोधित धारा 6 संशोधन से पहले या बाद जन्मी बेटियों को हमवारिस (Coparcener) बनाती है और उसे बेटों के बराबर अधिकार और दायित्व देती है। बेटियां 9 सितंबर, 2005 के पहले से प्रभाव से पैतृक संपत्ति पर अपने अधिकार का दावा ठोक सकती हैं।'

3. 9 सितंबर, 2005 का मामला क्यों उठा?
इस तारीख को हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून 2005 लागू हुआ था। दरअसल, हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956 से अस्तित्व में है जिसे 2005 में संशोधित किया गया था। चूंकि 2005 के संशोधित कानून में कहा गया था कि इसके लागू होने से पहले पिता की मृत्यु हो जाए तो बेटी का संपत्ति में अधिकार खत्म हो जाता है। यानी, अगर पिता संशोधित कानून लागू होने की तारीख 9 सितंबर, 2005 को जिंदा नहीं थे तो बेटी उनकी पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं मांग सकती है।

4. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में वर्ष 1956 का जिक्र क्यों?
जैसा कि ऊपर बताया गया है- हिंदू उत्तराधिकार कानून, 1956 में ही आया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून, 2005 की धारा 6 की व्याख्या करते हुए कहा कि बेटी को उसी वक्त से पिता की पैतृक संपत्ति में अधिकार मिल गया जबसे बेटे को मिला था, यानी साल 1956 से।

5. 20 दिसंबर, 2004 का जिक्र क्यों?
सुप्रीम कोर्ट ने बेटी को पिता की पैतृक संपत्ति में 1956 से हकदार बनाकर 20 दिसंबर, 2004 की समयसीमा इस बात के लिए तय कर दी कि अगर इस तारीख तक पिता की पैतृक संपत्ति का निपटान हो गया तो बेटी उस पर सवाल नहीं उठा सकती है। मतलब, 20 दिसंबर, 2004 के बाद बची पैतृक संपत्ति पर ही बेटी का अधिकार होगा। उससे पहले संपत्ति बेच दी गई, गिरवी रख दी गई या दान में दे दी गई तो बेटी उस पर सवाल नहीं उठा सकती है। दरअसल, हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून, 2005 में ही इसका जिक्र है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस बात को सिर्फ दोहराया है।

6. क्या बेटों के अधिकार पर ताजा फैसले का कोई असर होगा?
कोर्ट ने संयुक्त हिंदू परिवारों को हमवारिसों को ताजा फैसले से परेशान नहीं होने की भी सलाह दी। सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने कहा, 'यह सिर्फ बेटियों के अधिकारों को विस्तार देना है। दूसरे रिश्तेदारों के अधिकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा। उन्हें सेक्शन 6 में मिले अधिकार बरकरार रहेंगे।'

7. क्या बेटी की मृत्यु हो जाए तो उसके बच्चे नाना की संपत्ति में हिस्सा मांग सकते हैं?
इस बात पर गौर करना चाहिए कि कोर्ट ने पैतृक संपत्ति में बेटियों को बेटों के बराबर अधिकार दिया है। अब इस सवाल का जवाब पाने कि लिए एक और सवाल कीजिए कि क्या पुत्र की मृत्यु होने पर उसके बच्चों का दादा की पैतृक संपत्ति पर अधिकार खत्म हो जाता है? इसका जवाब है नहीं। अब जब पैतृक संपत्ति में अधिकार के मामले में बेटे और बेटी में कोई फर्क ही नहीं रह गया है तो फिर बेटे की मृत्यु के बाद उसके बच्चों का अधिकार कायम रहे जबकि बेटी की मृत्यु के बाद उसके बच्चों का अधिकार खत्म हो जाए, ऐसा कैसे हो सकता है? मतलब साफ है कि बेटी जिंदा रहे या नहीं, उसका पिता की पैतृक संपत्ति पर अधिकार कायम रहता है। उसके बच्चे चाहें कि अपने नाना से उनकी पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी ली जाए तो वो ले सकते हैं।

8. पैतृक संपत्ति क्या है?
पैतृक संपत्ति में ऊपर की तीन पीढ़ियों की संपत्ति शामिल होती है। यानी, पिता को उनके पिता यानी दादा और दादा को मिले उनके पिता यानी पड़दादा से मिली संपत्ति हमारी पैतृक संपत्ति है। पैतृक संपत्ति में पिता द्वारा अपनी कमाई से अर्जित संपत्ति शामिल नहीं होती है। इसलिए उस पर पिता का पूरा हक रहता कि वो अपनी अर्जित संपत्ति का बंटवारा किस प्रकार करें। पिता चाहे तो अपनी अर्जित संपत्ति में बेटी या बेटे को हिस्सा नहीं दे सकता है, कम-ज्यादा दे सकता है या फिर बराबर दे सकता है। अगर पिता की मृत्यु बिना वसीयतनामा लिखे हो जाए तो फिर बेटी का पिता की अर्जित संपत्ति में भी बराबर की हिस्सेदारी हो जाती है।

9. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में क्या कहा?
केंद्र सरकार ने भी सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के जरिए पैतृक संपत्ति में बेटियों की बराबर की हिस्सेदारी का जोरदार समर्थन किया। केंद्र ने कहा कि पैतृक संपत्ति में बेटियों का जन्मसिद्ध अधिकार है। जस्टिस मिश्रा ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि बेटियों के जन्मसिद्ध अधिकार का मतलब है कि उसके अधिकार पर यह शर्त थोपना कि पिता का जिंदा होना जरूरी है, बिल्कुल अनुचित होगा। बेंच ने कहा, 'बेटियों को जन्मजात अधिकार है न कि विरासत के आधार पर तो फिर इसका कोई औचित्य नहीं रह जाता है कि हिस्सेदारी में दावेदार बेटी का पिता जिंदा है या नहीं।'

10. बेटियां ताउम्र प्यारी... जैसी कौन सी टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने की?
सुप्रीम कोर्ट ने अभी अपनी तरफ से इस पर कुछ नहीं कहा। यह बात सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में दिए गए फैसले के वक्त ही कही थी। तीन सदस्यीय पीठ के अध्यक्ष जस्टिस अरुण मिश्रा ने इसे दोहराया। उन्होंने कहा, 'बेटा तब तक बेटा होता है जब तक उसे पत्नी नहीं मिलती है। बेटी जीवनपर्यंत बेटी रहती है।' तीन सदस्यीय पीठ में जस्टिस एस. अब्दुल नजीर और जस्टिस एमआर शाह भी शामिल थे।

दर्द(Pain)

  पूरे शरीर में दर्द के कारण कई लोगों को अकसर ही पूरे शरीर में दर्द रहता है। यह दर्द तनाव , स्ट्रेस , अनिद्रा आदि की व...